Sunday 25 March 2018

फासीवाद विरोधी संयुक्त मोर्चे का प्रश्न और हमारे कार्यभार

- राजेश त्यागी/ २४.३.२०१८ 

इस दौर में, जबकि दशकों से दक्षिणपंथ की ओर झुकते बुर्जुआ गणतंत्र, फासीवाद को स्वेच्छा से रास्ता दे रहे हैं, फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष, सर्वहारा क्रान्ति के एजेंडे पर सर्वोच्च स्थान ले लेता है.

फासीवाद से लड़ने का प्रश्न, नया नहीं है. इसका अपना एक सदी से अधिक का इतिहास है और उस इतिहास के ठोस अनुभव भी हैं. साथ ही जो परिस्थितियां आज मौजूद हैं, जिनके भीतर इस प्रश्न से हम जूझ रहे हैं, वे अपनी विशिष्टता लिए हुए हैं. कल और आज के बीच एक लय है, एक निरंतरता है, बावजूद इसके कि हर परिप्रेक्ष्य अपनी विलग विशिष्टता लिए है. इसलिए इतिहास के संघर्षों से रणनीतिक निष्कर्ष निकालते हुए, हमें आज के ठोस सन्दर्भ में इस प्रश्न को हल करना है.

आज के विशिष्ट राजनीतिक सन्दर्भ में जिन बिन्दुओं को दृष्टिगत रखने की जरूरत है, उनमें सबसे पहले तो विश्व परिप्रेक्ष्य है जिसमें, जैसा हमने ऊपर कहा कि दशकों से गल-सड़ रहे और दक्षिण की ओर झुकते जा रहे बुर्जुआ गणतंत्र, फासीवाद को स्वेच्छा से राह दे रहे हैं. फासीवाद का उभार, राष्ट्रीय नहीं, अंतर्राष्ट्रीय परिघटना है.

दूसरी बात, यह परिघटना विश्व-पूंजीवाद के आम संकट से पैदा हो रही है, जिसे २००८ के सब-प्राइम संकट ने बहुत गहन और तेज़ कर दिया है. दूसरे विश्व-युद्ध के बाद, स्तालिनवादी सत्ताओं के सहयोग से, विश्व-पूंजीवाद ने जो संतुलन और स्थिरता हासिल की थी, वह धुंआ हो गई है और उपभोग में ठहराव, प्रतिस्पर्धा और मुनाफों की लगातार गिरती दरों ने विश्व पूंजीवाद की आर्थिक व्यवस्था की चूल हिला दी हैं.

इस संकट के चलते दुनिया का पूंजीपति वर्ग, भूमंडलीकरण के सारे दिवास्वप्न भूलकर, फिर से राष्ट्रीय गिरोहों में विभाजित हो गया है. ये गिरोह, राष्ट्रों के संकुचित खोलों के भीतर, अपने पंख समेटे, वापस अपने-अपने संकीर्ण राष्ट्रीय हितों की सेवा में जुट गए हैं और पूंजीवादी आधार पर वैश्वीकरण को संपन्न करने की मृग-मरीचिका को पीछे छोड़ आए हैं. पूंजीपतियों के राष्ट्रीय गिरोह, एक बार फिर एक दूसरे के विनाश के लिए तत्पर हैं.

पूंजी के इस वैश्विक संकट के दौर में, राष्ट्रों के रूप में संगठित, पूंजीपतियों के ये गिरोह, पहले ही विश्व स्तर पर एकजुट हो चुकी और लगातार और एकीकृत होती जा रही उत्पाद्कीय शक्तियों के विरुद्ध, अधिकाधिक राष्ट्रवादी प्रवृत्तियों और राष्ट्रवाद से अनुप्रेरित दर्जनों किस्म के दक्षिणपंथी आंदोलनों की ओर झुक रहे हैं.

विश्व पूंजीवाद के इस संकट के दो मुख्य परावर्तन, जो एक दूसरे से निकटता से जुड़े हैं और एक दूसरे का अटूट सिलसिला हैं, सामने हैं- राष्ट्रीय सीमाओं के पार युद्ध और सीमाओं के भीतर फासीवाद.

हम स्पष्ट देख सकते हैं कि फासीवाद, और कुछ नहीं बल्कि संकटग्रस्त पूंजीवाद का बिम्ब, और उसके रक्तरंजित अंतर्य का परावर्तन है.

तीसरा यह कि फासीवाद संकटग्रस्त पूंजी का हिंसक, सामाजिक आन्दोलन है. चौतरफा संकट में घिरते जा रहे पूंजीवाद के लिए, जो न सिर्फ दुनिया को कुछ नया देने में ही असमर्थ है, बल्कि विगत की उपलब्धियों से भी उसे निरंतर वंचित करता जा रहा है, यह अनिवार्य हो जाता है कि वह मेहनतकश जनता की आकांक्षा और प्रतिरोध के दमन के लिए हिंसा का सहारा ले.

चौथे, इस दमन के लिए उसे जो असीमित और व्यापक हिंसा चाहिए उसके लिए अकेले राज्य की मशीन कतई पर्याप्त नहीं है. इसके लिए वह राज्य के साथ-साथ अनौपचारिक हिंसा का एक पूरा अनुशासित अर्ध-सैनिक तंत्र खड़ा करता है और पूंजीवाद ने जिस अमानवीय, पाशविक समाज की रचना की है, उसके सबसे पिछड़े, लम्पट तत्वों को इस उद्देश्य के लिए फासीवादी आन्दोलन में सगठित करता है.

पांचवे, पूंजी के इस गहन संकट के दौर में, पूंजीवाद और फासीवाद को चुनौती दे सकने और उसे नष्ट कर दुनिया को मुक्त करने में समर्थ, मजदूर वर्ग पूरी तरह असंगठित है और एक वर्ग के रूप में अनुपस्थित है. यह दशकों से मजदूर आन्दोलन के गले में पड़े, कुख्यात स्टालिनवाद के दमघोंटू फंदे का विषैला परिणाम है, जो उसे एक क्रान्तिकारी शक्ति के रूप में पूंजीवाद और फासीवाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष में उतरने और विजय हासिल करने से रोकता है.

फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष का तात्कालिक प्रश्न, आक्रामक और हिंसक पूंजीवाद के विरुद्ध, बिखरे, असंगठित मजदूर वर्ग को, एक अजेय शक्ति में बदलने और उसके आधार पर फासीवाद के विरुद्ध ऐसे सफल प्रतिरोध को संगठित करने का प्रश्न है, जिसके गिर्द करोड़ों-करोड़ दमित, दलित, शोषित, उत्पीड़ित, मेहनतकश एकजुट होकर उसमें हिस्सा लें और जिसका उद्देश्य, फासीवाद को कुचलते हुए, मजदूर-किसान सत्ता की स्थापना हो.

मगर मजदूर आन्दोलन पर वर्चस्व बनाए हुए, स्तालिनवादी वाम के नेता, फासीवाद के इस चरित्र और उसके विरुद्ध मजदूर वर्ग के इस संलयन का खुला विरोध करते हैं. वे रूसी क्रान्ति के सह-नेता लिऑन ट्रॉट्स्की द्वारा जर्मन क्रान्ति के दौरान प्रतिपादित इस स्पष्ट सूत्र के ही विरोधी हैं कि ‘फासीवाद, संकटग्रस्त पूंजी का हिंसक सामाजिक आन्दोलन है’. इसके विपरीत, वे स्टालिन के इस झूठे सूत्र का समर्थन करते हैं कि ‘फासीवाद, वित्तीय पूंजी के सबसे पतित तत्वों की तानाशाही है’.

जर्मन क्रान्ति के दौरान, फासीवाद के चरित्र और अंतर्य पर उठा यह विवाद, अत्यंत महत्वपूर्ण है और फासीवाद के विरुद्ध हमारे संघर्ष और समझ के लिए निर्णायक महत्व का है.

आइए समझें कि स्टालिन के इस सूत्र के, जिसे दिमित्रोव थीसिस में १९३५ में प्रस्तुत किया गया था, कि ‘फासीवाद, वित्तीय पूंजी के सबसे पतित तत्वों की तानाशाही है’, ऐतिहासिक-राजनीतिक अर्थ और सन्दर्भ क्या हैं.

ट्रॉट्स्की ने, जर्मन क्रान्ति में, १९२८ में ही फासीवाद विरोधी सर्वहारा संयुक्त मोर्चा गठित करने का प्रस्ताव रखा था. उस समय जर्मनी में मजदूर वर्ग दो हिस्सों में बंटा था. उसका दो-तिहाई हिस्सा जर्मन सामाजिक-जनवादी मजदूर पार्टी (SPD) में संगठित था जबकि एक तिहाई हिस्सा, उससे अलग हुई जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी (KPD) में संगठित था. ट्रॉट्स्की का प्रस्ताव था कि दोनों मज़दूर पार्टियों के प्रभाव वाले मज़दूर, एकजुट होकर फासीवाद का मुकाबला करें और उसका सर कुचल दें.

स्टालिन ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा कि सामाजिक-जनवादी, सामाजिक-फासीवादी हैं, उनके साथ सांझा मोर्चा नहीं हो सकता. १९२८ में उसने कहा कि दुनिया में तृतीय कालखंड (थर्ड पीरियड), पर क्रान्ति की पूर्ववेला मौजूद है जिसके चलते किसी सांझे मोर्चे की जरूरत नहीं है और कम्युनिस्ट पार्टी अपने ही भरोसे फासीवादियों और सामाजिक-जनवादियों दोनों से निपट सकती है. उसने सामाजिक-जनवादियों को फासीवाद से अधिक बड़ा खतरा बताते हुए उन्हें पहला निशाना बनाने का आह्वान किया. स्तालिनवादियों ने, स्टालिन के निर्देश पर, सामाजिक-जनवादी सभाओं पर खुले हमले शुरू किए जिनमें स्तालिनवादी और फासीवादी मिलकर हिस्सा लेते थे. हिटलर द्वारा आहूत जनादेश को सीधे सहयोग देते हुए, स्तालिनवादियों ने १९३१ के अंत में, खुद रेड-रेफेरेंडम का आह्वान किया.

इससे पहले स्टालिन, रूस में, लेनिन और ट्रॉट्स्की की नीति के विरुद्ध, फरवरी क्रान्ति के दौरान केरेंसकी की पूंजीवादी सरकार को समर्थन दे चुका था और लेनिन की मृत्यु के बाद एक बार फिर चीनी क्रान्ति में ट्रॉट्स्की की नीति के विरुद्ध बुर्जुआ कोमिनतांग के साथ मोर्चे बनाकर, मजदूर वर्ग और कम्युनिस्ट पार्टी को उसके आधीन करके, १९२८ तक विजयी चीनी क्रान्ति का सर्वनाश कर चुका था. बुर्जुआ पार्टियों नेताओं के साथ सांझे मोर्चे कायम करने वाली ये नीतियां मेन्शेविक नीतियों की निरंतरता थीं.

रूसी क्रान्ति को, लेनिन की अप्रैल थीसिस ने, अक्टूबर की ओर मोड़ते हुए, विनाश से बचा लिया किन्तु विजयी चीनी क्रान्ति इसकी चपेट में आकर नष्ट हो गई.

१९२८ में चीनी क्रान्ति के विनाश के बाद, स्टालिन ने जर्मन क्रान्ति में फासीवाद के विरुद्ध, संयुक्त सर्वहारा मोर्चा बनाने से इंकार कर दिया और सामाजिक-जनवादी मजदूर पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोलकर, मजदूर वर्ग को विभाजित कर दिया.

स्टालिन के नेतृत्व में जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी की यह अवस्थिति, फासीवाद के पक्ष में थी. सामाजिक-जनवादी नेता पहले ही संयुक्त मोर्चे के विरोध में थे. स्तालिनवादियों की नीतियों ने उनकी फूटपरस्त राजनीति को और संबल दिया.

इस नीति का परिणाम यह हुआ कि जर्मनी का मजदूर वर्ग विभाजित हो गया और फासीवादी १९३३ में सत्ता में आ गए.

फासीवाद के सत्ता में आ जाने के बाद, स्टालिन ने फिर से चीनी क्रान्ति में पिटी हुई नीति को, जर्मनी और शेष दुनिया पर लागू करते हुए, १९३५ में फासीवाद के खिलाफ ‘जनमोर्चों’ के संगठन का आह्वान किया. इसका अर्थ था- जर्मनी सहित सभी देशों के भीतर सर्वहारा और बुर्जुआ पार्टियों के बीच सांझा मोर्चा और बाहर सोवियत संघ और ब्रिटिश-फ्रेंच नेतृत्व वाले साम्राज्यवादी शिविर के बीच सांझा मोर्चा.

मजदूर वर्ग और कम्युनिस्ट पार्टियों को बुर्जुआजी के पीछे बांधने वाली, इस वर्ग-समन्वयवादी मेन्शेविक नीति को, सैद्धांतिक जामा पह्नाते हुए स्टालिन ने फासीवाद का यह झूठा चरित्र निरूपण किया कि ‘फासीवाद, वित्तीय पूंजी के सबसे पतित तत्वों की तानाशाही है’

यह झूठी अवधारणा इस तीन बिन्दुओं पर टिकी थी:

१. फासीवाद का सम्बन्ध समूचे पूंजीवाद से नहीं बल्कि सिर्फ वित्तीय पूंजी से है.

२. फासीवाद समूची वितीय पूंजी से नहीं, बल्कि उसके सबसे पतित तत्वों से ही जुड़ा है.

३. फासीवाद, उपरोक्त तत्वों की ‘तानाशाही’ है.

इस झूठे सूत्र का स्पष्ट अर्थ था कि पूंजीवाद के मध्य ऐसे तत्व मौजूद हैं, जो ‘वित्तीय पूंजी के सबसे पतित तत्वों की तानाशाही’ से सम्बद्ध नहीं हैं. स्टालिन ने पूंजीवाद के, बल्कि सीधे साम्राज्यवाद के इन अवयवों को ‘जनवादी’ घोषित करते हुए उन्हें बड़ी जमानत दे दी और उनके साथ सांझे मोर्चे ‘जनमोर्चे’ या ‘पॉपुलर फ्रंट’ बनाने की अनुशंसा की. ट्रॉट्स्की, बुर्जुआ पार्टियों और साम्राज्यवादियों के साथ मोर्चे बनाने की इस नीति का मुखर विरोधी था. वह संयुक्त सर्वहारा मोर्चे बनाने के लिए संघर्ष करता रहा.

बुर्जुआ शासनों के साथ ‘जनमोर्चे’ कायम करने की इस नीति को अंजाम देते, स्तालिनवादियों ने १९३५ से ही स्पेनिश क्रान्ति का विरोध किया और स्पेनिश क्रान्ति के विरुद्ध, सीधे ही सोवियत फौजों को उतारकर स्टालिन ने सफलता के मुहाने पर खड़ी स्पेनिश क्रान्ति को, बर्बरता से कुचल दिया. इस सर्वनाश ने, स्पेन में फ्रेंको के नेतृत्व में फासीवाद के तीव्र उभार के लिए रास्ता साफ़ कर दिया.

जनमोर्चे के प्रस्ताव को फ़्रांस और ब्रिटेन की ओर से उपेक्षा मिलने पर, स्टालिन ने अगस्त १९३९ में हिटलर से खुल्लमखुल्ला युद्ध-संधि कर ली और जर्मन उपनिवेशों में उनकी कम्युनिस्ट पार्टियों ने स्वतंत्रता संघर्ष रोक दिया. हिटलर के साथ मिलकर स्टालिन ने पोलैंड पर हमला कर दिया और हिटलर को यूरोप के भीतर सैनिक दखल का रास्ता देकर दूसरे विश्व-युद्ध की आग भड़का दी. फासिस्ट जर्मन सरकार के साथ सोवियत संधि का विरोध कर रहे ट्रॉट्स्क की सोवियत और जर्मन ख़ुफ़िया पुलिस ने मिलकर मेक्सिको में सितम्बर १९४० में हत्या करा दी. १९४१ में, हिटलर द्वारा सोवियत संघ पर हमले के बाद, अवाक स्टालिन ने, १९४२ में ब्रिटिश, फ्रेंच और फिर अमेरिकन साम्राज्यवादियों के नेतृत्व वाले साम्राज्यवादी शिविर से हाथ मिला लिया और इनके उपनिवेशों में औपनिवेशिक दासता के खिलाफ चलाए जा रहे स्वतंत्रता संघर्ष, स्टालिन और उसके नेतृत्व वाले कोमिन्टर्न के निर्देश पर, रोक दिए गए. चीन और भारत सहित, दुनिया के तमाम देशों की क्रांतियां, एक के बाद एक, इन झूठी नीतियों का शिकार बनती चली गईं. इससे विश्व पूंजीवाद, जिसे युद्ध और क्रान्तिकारी उभारों ने जड़ों तक हिला दिया था, स्थिर और पुनर्संतुलित हो गया.

फासीवाद, जिसे बुर्जुआजी से मिलकर नष्ट करने का, स्तालिनवादी झूठा दम भरते रहे थे, तबसे निरंतर पूंजीवाद के संकट के दौर में फिर-फिर प्रकट होता रहा और अंत में यूक्रेन और भारत सहित कई देशों में पूरी शक्ति से सत्तासीन हो गया.

बुर्जुआजी के बीच जनवादी हिस्सों की मौजूदगी की झूठी मरीचिका पर टिकी स्तालिनवादियों की फ़र्ज़ी नीतियों ने, पिछली एक सदी में मजदूर वर्ग को पूंजीवाद-फासीवाद के विरुध्द आक्रमण खोलने से रोके रखा है. स्तालिनवादी आज भी फासीवाद के विरुद्ध सर्वहारा संयुक्त मोर्चों की नीति से इनकार करते हुए, बुर्जुआ पार्टियों, नेताओं के साथ ‘जनमोर्चे’ कायम करने का आह्वान करते हैं और मज़दूरों, युवाओं को इस जनमोर्चों के पीछे बांधते और उनके मातहत करते हैं.

भारत में वे कांग्रेस से लेकर राजद तक दर्जनों दक्षिणपंथी बुर्जुआ पार्टियों और उके नेताओं को फासीवाद विरोधी मोर्चे के जनवादी सहयात्री बताते हैं और उनके साथ सांझे मोर्चे बनाने के लिए उत्सुक रहते हैं. शेष दुनिया की तरह ही, भारत में भी वे फासीवाद के विरुद्ध सर्वहारा मोर्चे कायम करने और उनके गिर्द मेहनतकशों, उत्पीड़ितों को लामबंद करने के हमारे प्रस्ताव का जमकर विरोध करते हैं और बुर्जुआ पार्टियों, संगठनों के साथ मोर्चे बनाने, जो मौसमी चुनावी गठबंधन से आगे नहीं बढ़ते, के लिए तत्पर रहते हैं.

फासीवाद, पूंजीवाद की ही काली छाया है और पूंजीवाद का वैरी मजदूर वर्ग ही फासीवाद के विरुद्ध एकमात्र संघर्षशील और कारगर शक्ति है. पूंजीपति वर्ग के हिस्से, फासीवाद के वैरी नहीं हैं और मजदूर वर्ग के विरुद्ध वे फासीवाद को समर्थन देने से भी गुरेज़ नहीं करेंगे. बुर्जुआ जनवाद की समर्थक तमाम पार्टियां और नेता, मजदूर वर्ग की अपेक्षा, फासीवादियों के कहीं अधिक निकट हैं. मजदूर वर्ग की सत्ता और फासीवाद के बीच चुनाव के विकल्प में से वे निश्चित और निरपवाद रूप से वे फासीवाद का ही चुनाव करेंगे.

ऐसे तमाम प्रस्तावों को जो फासीवाद से लड़ने के नाम पर या उसे बहाना बनांते हुए, सर्वहारा और युवाओं को, बुर्जुआ पार्टियों और नेताओं के पीछे बांधते हैं, उनसे सहबंध बनाने के लिए उकसाते हैं, सिरे से ख़ारिज किया जाय.

फासीवाद, पूंजीवाद की बीमार काया पर उगी हुई फफूंद है. फासीवाद, पूंजीवाद का हिंसक सामाजिक आन्दोलन है. इसकी जड़ें, मुख्य रूप से पूंजीवाद से तबाह हो रहे निराश, हताश मध्यवर्ग के बीच होती हैं. लम्पट सर्वहारा भी इसकी पूंछ से बंधा होता है. फासीवाद, मजदूर वर्ग को, समाजवादी क्रान्ति न करने के लिए, इतिहास की ओर से दंड है.

फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष के नाम पर, बुर्जुआजी के साथ किसी भी तरह के सह्बंध के प्रस्तावों को ख़ारिज करते हुए, हमें सर्वहारा को इसके विरुद्ध आक्रमण के लिए एकजुट करना चाहिए. इस एकजुटता का नाम ही संयुक्त मोर्चा है.

संयुक्त मोर्चे का प्रश्न, मजदूर वर्ग के मौजूदा विसंगठन और उसकी क्रान्तिकारी पार्टी, वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी, की सांगठनिक कमजोरी से पैदा होता है. इस खाई को फासीवाद के खिलाफ संघर्ष के दौरान पाट दिया जाएगा.

लेकिन, जैसा हमने ऊपर कहा, इस समय मजदूर वर्ग दर्जनों ही नहीं सैंकड़ों हिस्सों में बिखरा हुआ और विसंगठित है. उसे क्रान्तिकारी मार्क्सवाद के कार्यक्रम और उससे निदेशित वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी के गिर्द लामबंद करने के हमारे प्रयास, फासीवाद के प्रतिरोध की तात्कालिक जरूरतों और मांगों से अभी बहुत दूर हैं. फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष के लिए, इतिहास हमें इस इंतज़ार का समय नहीं देगा.

एक तरफ मजदूर वर्ग के बिखराव और दूसरी तरफ फासीवाद के विरुद्ध प्रतिरोध की तात्कालिक आवश्यकता, फिर एक बार, विगत की क्रांतियों की ही तरह, बल्कि उनसे भी कहीं अधिक, सर्वहारा संयुक्त मोर्चे की मांग को सामने रखती है.

इस मोर्चे का अर्थ है- अलग-अलग विचारों, झंडे, बैनर के समर्थक मज़दूर, फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष में साथ आएं. इसका अर्थ न तो सांझे मंच बनाना है, न सांझा प्रचार, प्रेस, परचे, सेमिनार हैं. इस मोर्चे का अर्थ है कि विभिन्न विचारों, बैनरों के समर्थक सर्वहारा अपने-अपने बैनरों के नीचे मार्च करते, एक दूसरे से तालमेल में फासीवाद पर चारों ओर से संगठित हमले करें और सिर्फ इन सांझे हमलों को संगठित करने, उनमें लय-ताल बिठाने, उन्हें अधिकाधिक कारगर, प्रभावी और तीखे बनाने के लिए साथ आएं.

फासीवाद के खिलाफ मोर्चे का उन चुनावी गठबंधनों से कोई साम्य नहीं हैं जिन्हें अवसरवादी नेता जब-तब अंजाम देते रहते हैं. फासीवाद विरोधी मोर्चा किसी भी अर्थ में पार्टियों और नेताओं के बीच गठबंधन नहीं है. यह कार्रवाई के लिए सीधा आह्वान है. यह विभिन्न विचारों, बैनरों के नीचे संगठित, मज़दूरों के बीच उद्देश्यपरक सहबंध है, न कि उनके अवसरवादी नेताओं के सहत गठबंधन. 
  
ठीक इसीलिए, फासीवाद के विरुद्ध इस मोर्चे को, बंद सभागारों, दफ्तरों, सेमिनारों में अंजाम नहीं दिया जा सकता. इसे सीधे सड़क पर संघर्ष में ही हासिल किया जा सकता है. इस संघर्ष के लिए सर्वोपरि आवश्यकता, नेतृत्व के मानसिक रूप से तैयार और सशक्त होने की है तभी सर्वहारा और उसके पीछे उत्पीड़ित, मेहनतकश जनता के अन्य हिस्सों को फासीवाद से सीधी मुठभेड़ के लिए तैयार किया जा सकता है. 

वाम आन्दोलन पर कुंडली मारे बैठे, रंग-बिरंगे अवसरवादी नेता, क्या इसके लिए तैयार हैं? स्पष्ट है कि वे खुद को इस जोखिम में डालने के लिए कतई तैयार नहीं हैं!

इन नेताओं के विरुद्ध संघर्ष, निस्संदेह अत्यंत महत्वपूर्ण कार्यभार है, जिसके बिना वाम आन्दोलन अपने क्रान्तिकारी तेवर वापस नहीं लौटा सकता. लेकिन इस संघर्ष की सफलता तक, फासीवाद के विरुद्ध प्रतिरोध को स्थगित नहीं किया जा सकता. इसलिए तात्कालिक आवश्यकता यही है कि सर्वत्र फासीवाद के विरुद्ध सर्वहारा को संगठित किया जाय और नित नए संयुक्त मोर्चे उसके विरुद्ध खोले जाएं.

लाल झंडे उठाए कितने ही फर्जी वामी नेता, पार्टियां और संगठन, फासीवाद से लड़ने के नाम पर कथित सांस्कृतिक अभियानों का कायराना स्वांग करते हैं. ये निम्न-बुर्जुआ अभियान, फासीवाद का बाल भी बांका नहीं करते. फासीवाद सिर्फ एक ही भाषा समझता है- वह है बलप्रयोग. यह सिर्फ करोड़ों-करोड़ मज़दूरों, मेहनतकशों, युवाओं के व्यापक शस्त्रीकरण के जरिए ही संभव हो सकता है. फासीवाद को साहित्य, संस्कृति या संसद की भाषा में कोई चुनौती नहीं दी जा सकती, न ही उसकी इसमें कोई रूचि है.

वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी द्वारा प्रस्तुत इस कार्यक्रम को आधार बनाते हुए, फासीवाद विरोधी सर्वहारा संयुक्त मोर्चे के पक्ष में जोरदार अभियान चलाने की जरूरत है जिससे मजदूर संगठनों के शीर्ष पर बैठे झूठे नेताओं और उनकी नीतियों को नंगा करते हुए इस मोर्चे में सर्वहारा वर्ग और उसके गिर्द अन्य उत्पीड़ित, मेहनतकश हिस्सों की लामबंदी को सुनिश्चित किया जा सके.

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