Tuesday 18 July 2017

काश्मीर का रिसता घाव और दक्षिण एशिया में क्रान्ति के लिए संघर्ष

- राजेश त्यागी/ २०.३.२०१६ 
हिंदी अनुवाद: कल्पेश डोबरिया

काश्मीर, दक्षिण एशिया की देह पर, लगातार रिसते घाव के रूप में मौजूद है. पिछले कुछ समय से यह प्रश्न बार-बार उभरता रहा है, और हाल ही में जे.एन.यू. में काश्मीर की आज़ादी के पक्ष में नारे लगाए जाने की घटना के दौरान फिर से उभरा है.

भारत और पाकिस्तान, दो प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रों के बीच वैमनस्य का मुद्दा बना काश्मीर का मसला, दरअसल १९४७ में भारतीय उपमहाद्वीप के प्रतिक्रियावादी, सांप्रदायिक विभाजन का, उस महाविनाश का, सीधा परिणाम है जो ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा संगठित और भारतीय बुर्जुआजी के कांग्रेस, मुस्लिम लीग और आरएसएस नीत घटकों तथा स्तालिनवादी सीपीआई की वाहियात नीतियों द्वारा समर्थित प्रतिक्रांति के शिखर पर प्रकट हुआ. उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलन के क्रूर दमन और बड़े पैमाने के सांप्रदायिक दंगों का संगठन करके देशी-विदेशी पूंजीपति मिलकर मजदूर वर्ग द्वारा सत्ताहरण को रोकने में सफल रहे. दोनों के बीच प्रतिक्रियावादी समझौते ने, उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष का गर्भपात कर दिया, साम्राज्यवाद के दो प्रतिद्वंद्वी ग्राहक राज्यों, भारत और पाकिस्तान, की स्थापना के लिए, भारतीय महाद्वीप को दो हिस्सों में चीर डाला और जिसका परिणाम मानवीय इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी, सांप्रदायिक दंगों के तांडव के रूप में सामने आया जिसने व्यापक लूट, आगज़नी और बलात्कारों के अतिरिक्त दो करोड़ जानें लीं.

भारत और पाकिस्तान के शत्रु राज्यों के मध्यस्थ क्षेत्र के रूप में फंसा काश्मीर, १९४७ से इस शत्रुता का सबसे भयंकर शिकार हुआ है. काश्मीर के इलाके पर परस्पर विरोधी दावे करते, दोनों देशों के पूंजीपतियों ने, अपनी-अपनी सुरक्षा में, इस क्षेत्र में भारी सशस्त्र बलों की तैनाती करते हुए, परोक्ष युद्धों के जरिए, एक-दूसरे के इलाकों में अशांति उत्पन्न करना जारी रखा है.

काश्मीर पर भारत और पाकिस्तान के प्रतिद्वंद्वी क्षेत्रीय दावों के समानांतर, वहां की मजदूर, गरीब और मेहनतकश जनता के बीच, बुर्जुआ शासन, शोषण, हिंसा और रक्तपात के दमनकारी जुए से छुटकारा पाने के लिए एक वैध आकांक्षा मौजूद है. इस आकांक्षा को, काश्मीर का स्थानीय बुर्जुआ, अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए, अपने उन निहित स्वार्थों के लिए इस्तेमाल करता है, जो नई दिल्ली और लाहौर के हितों से किसी भी प्रकार भिन्न नहीं हैं।

काश्मीर के मुद्दे पर दक्षिण एशिया में बुर्जुआजी मुख्यतः तीन हिस्सों में विभाजित है. नई दिल्ली की अगुवाई में एक हिस्सा, काश्मीर को, भारत के अधीनस्थ क्षेत्र के रूप में, अपने शिकंजे में और अपने वर्चस्व के अधीन रखना चाहता है. लाहौर की अगुआई में, इसका प्रतिद्वंद्वी हिस्सा, यह जानते हुए भी कि वह एक असंभव मिशन में लगा है, काश्मीर को पाकिस्तान के अधीनस्थ क्षेत्र में बदलने के घोषित उद्देश्य से संघर्ष कर रहा है. इसके बाद आता है- काश्मीर का स्थानीय पूंजीपति वर्ग, जिसकी राजनीतिक आकांक्षा काश्मीर में दिल्ली और लाहौर से स्वतंत्र सत्ता हासिल करने की है और जो काश्मीर सत्ता संघर्ष में एक पक्षकार है. यह काश्मीर के लिए 'आजादी' की मांग करता है, यानि अपने स्वयं के शासन के अधीन एक स्वतंत्र काश्मीर की मांग.

कहने की ज़रूरत नहीं कि पूंजीपतियों के ये तीनों हिस्से, विश्व के साम्राज्यवादी शिविरों के साथ काफी निकटता से बंधे है। तमाम लफ्फाजी के बावजूद, उनकी भूमिका और उद्देश्य, कश्मीर के प्राकृतिक और मानव संसाधनों के शोषण में बंदरबांट के लिए, विश्व बाजार और कश्मीर के बीच एक आवश्यक कड़ी के रूप में कार्य करने, और इस सेवा के बदले अपने लिए ज्यादा से ज्यादा दलाली हासिल करने के अलावा कुछ भी नहीं है।

भारत और पाकिस्तान- दोनों बुर्जुआ राष्ट्रीय राज्य, विरोधी साम्राज्यवादी शिविरों के साथ काफ़ी निकटता से जुड़े हुए हैं. जहां भारत, अमेरिका के नेतृत्व में नाटो के सैन्य गुट के निकट से निकटतर खिंचता गया है, वहीं पाकिस्तान,रूस और चीन के नेतृत्व वाले, प्रतिद्वंद्वी गुट को अंगीकृत कर रहा है. शस्त्रास्त्रों से सज्जित साम्राज्यवादी शक्तियों से दोनों देशों की यह निकटता, एशिया में कश्मीर की भौगोलिक-राजनीतिक स्थिति के दृष्टिगत, निकट भविष्य में साम्राज्यवादी प्रतिद्वंद्विता के लिए, एक युद्धक्षेत्र बन जाने का ख़तरा उत्पन्न करती है.

कश्मीर पर, भारतीय और पाकिस्तानी पूंजीपति वर्ग के प्रतिद्वंद्वी दावों को खारिज करते हुए, हम, साथ ही, कश्मीरी पूंजीपति वर्ग के, कश्मीर की 'आजादी' के लिए आह्वान को भी अस्वीकार करते हैं. हुर्रियत और जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठनों की अगुआई वाला, काश्मीरी पूंजीपति वर्ग, काश्मीर को जिस एक अलग लघु-राज्य के रुप में स्थापित करने का प्रस्ताव करता है, वह राज्य, काश्मीर की मज़दूर और मेहनतकश जनता को कुछ नहीं दे सकता. विश्व-बुर्जुआजी, अपनी समग्रता में, इतिहास में काफी समय पहले ही प्रतिक्रांतिकारी हो चुकी है, और इसके तहत राष्ट्रीय-राज्य भी उसी प्रकार प्रतिक्रांतिकारी हो चुके हैं. ये राष्ट्रीय-राज्य, चाहे नये हों या पुराने, मेहनतकश जनता की आकांक्षाओं को तुष्ट नहीं कर सकते. पूंजीवाद की बुनियाद पर स्थापित कोई भी नया राष्ट्रीय-राज्य, पहले की अपेक्षा अधिक विकृत ही होगा और कुछ भी प्रगतिशील नहीं दे पायेगा. १९७१ में स्थापित बांग्लादेश,निकृष्टतम शोषण, अत्यधिक गरीबी, सांप्रदायिक हिंसा, निरक्षरता और बीमारियों का घर बनकर, इसके सजीव उदाहरण के रूप में हमारे सामने है.

इस प्रकार, स्थानीय पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में, काश्मीर की आज़ादी के लिए आंदोलन, सर्वथा प्रतिक्रियावादी आंदोलन है जो काश्मीर में विभिन्न समुदायों को एकजुट करने के बजाय, उनमें धार्मिक विग्रह पैदा करता है और निश्चित तौर पर एक धर्म-आधारित मूलवादी राज्य स्थापित करने का प्रस्ताव करता है. यह आंदोलन और उसके नेता साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ घनिष्ठ संबंध रखते हैं. काश्मीर पर शासन की इनकी इच्छा का,मज़दूरों और मेहनतकशो की पूंजीवाद-जनित शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति की इच्छा के साथ कोई साम्य नहीं है. काश्मीरी पूंजीपति वर्ग के पास कोई ऐसा कार्यक्रम नहीं है जो नई दिल्ली या लाहौर से अलग हो. वे केवल नई दिल्ली और लाहौर के अपने बड़े भाइयों से छुटकारा पाने, उनकी जगह खुद को काश्मीरी मज़दूरों-मेहनतकशो के सिर पर मढ़ देने, और काश्मीर को सीधे विश्व बाजार से जोड़ने के लिए, स्वायत्तता चाहते हैं. वे, निरंकुश शासन के नेताओं के तौर पर, नई दिल्ली और लाहौर के शासको के स्थान पर, खुद को प्रतिस्थापित करना चाहते हैं। इनका कुल कार्यक्रम, अपने निकृष्टतम रूप में अधिकतम स्वायत्तता से आगे नहीं जाता, और सर्वोत्तम रुप में साम्राज्यवाद के अधीनस्थ एक लघु-राज्य के निर्माण से परे नहीं जाता. पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के जुए से मुक्ति और स्वतंत्रता के लिए प्रयास करने के बजाय, ये विश्व बाजार और साम्राज्यवाद से नजदीकी और सीधा संबंध बनाने के लिए प्रयास करते हैं। बुनियादी तौर पर सर्वथा प्रतिक्रियावादी और रूढ़िवादी उनका यह कार्यक्रम, काश्मीर के मजदूरों और गरीबों को कुछ भी नहीं दे सकता।

इस सब के बावजूद हमें नई दिल्ली के अत्याचारी शासन के खिलाफ, काश्मीरी जनता के जायज आक्रोश को ध्यान में रखना है। यह आक्रोश, नई दिल्ली द्वारा काश्मीरी राष्ट्रीयता के सैन्य उत्पीड़न और उसे बलात अपने अधीनस्थ बनाए रखने के दमनकारी प्रयासों की उपज है।

नई दिल्ली के काश्मीर पर बलात नियंत्रण और उसके सैन्य-उत्पीड़न का विरोध करते हुए, हम, इस प्रकार से, जाति, पंथ, धर्म या समुदाय के भेदभाव के बिना, काश्मीरी-क्षेत्र में बसने वाले सभी काश्मीरी लोगों के लिए आत्मनिर्णय के अधिकार का बिना शर्त समर्थन करते हैं और भारतीय क्षेत्र से अलग होने तक के उनके आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करते हैं।

हालांकि, हम काश्मीर के मजदूर-मेहनतकशो को यह सच्चाई बताते हैं कि ऐसे किसी अलगाव से,आज़ाद काश्मीर की किसी स्थापना से, काश्मीर में मजदूर-मेहनतकश जनता के लिए कुछ भी बदलने वाला नहीं है. लाहौर या श्रीनगर का पूंजीवादी शासन, नई दिल्ली के तहत शासन से किसी भी प्रकार अलग नहीं होगा। अलगाव कोई समाधान प्रस्तुत नहीं करता!

मज़दूरों, गरीबों और दमितो की मुक्ति और जनवाद के लिए कोई भी सच्चा संघर्ष, २१वीं शताब्दी में, बुर्जुआ-राष्ट्रवाद के प्रतिक्रियावादी, संकीर्ण और रूढ़िवादी आधार पर, नहीं किया जा सकता. यह संघर्ष, केवल सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयता के आधार पर और विश्व समाजवादी क्रांति के अभिन्न अंग के रूप में ही विकसित किया जा सकता है।

यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि स्टालिनवादी और माओवादी वाम से जुड़ी पार्टियां और उनके नेता, वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी द्वारा विकसित इस अंतर्राष्ट्रीयतावादी कार्यक्रम का विरोध करते हैं. वे बुर्जुआजी के विभिन्न हिस्सों से चिपके रहते हैं और उनके कार्यक्रम की वकालत करते हैं. जब कि सीपीआई, सीपीएम जैसी स्टालिनवादी पार्टियां अपनी राजनीतिक संहति खोकर, भारत की एकता और अखंडता के मुखौटे के पीछे, काश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार को धता बताते, नई दिल्ली का समर्थन करती हैं, माओवादी, विरोधी पूंजीवादी गुट द्वारा प्रस्तावित, काश्मीर की आज़ादी के दावों का समर्थन करते हैं. स्टालिनवादी और माओवादी- दोनों, इस तरह, अमीरों-अभिजातो के शासन के इस या उस हिस्से से जुड़े रहते हैं।

काश्मीर की समस्या १९४७ के प्रतिक्रियावादी सांप्रदायिक विभाजन से उत्पन्न होती है. इसलिए आगे बढ़ने का रास्ता, विभिन्न क्षेत्रों का अलगाव नहीं है, बाल्कन-क्षेत्र की तरह टुकड़े-टुकड़े हो जाना नहीं है, बल्कि समाजवादी क्रांति के जरिए, ४७ के विभाजन को उलटकर भारतीय उपमहाद्वीप का पुनरेकीकरण है. भारतीय उप-महाद्वीप में यह समाजवादी क्रांति, विश्व समाजवादी क्रान्ति के हिस्से के रूप में उभरेगी और दक्षिण एशिया के सभी पूंजीवादी राज्यों के विरुद्ध सर्वहारा के व्यापक क्रांतिकारी आक्रमण की धधकती ज्वालायें प्रज्ज्वलित करेगी तथा उनकी सत्ताओं को उलटते हुए स्वतंत्र समाजवादी गणराज्यों के संघ में उन्हें एकजुट करेगी.

इस क्रांति को आगे बढ़ाने के लिए, हमें काश्मीर के भीतर और बाहर एक क्रान्तिकारी संक्रमणकालीन कार्यक्रम प्रस्तुत करना और उसके लिए संघर्ष करना होगा, जिसकी मांगों में अन्य बिन्दुओं के अतिरिक्त, काश्मीरी मज़दूरों और दूसरे मेहनतकशो के बीच एकता, काश्मीर के अंदर और बाहर मज़दूर वर्ग के हिस्सों के बीच एकता, काश्मीर में सभी प्रकार की हिंसा का अंत, काश्मीर से सभी सशस्त्र बलों और सभी काले कानूनों की तत्काल वापसी, बलात नियंत्रण को ख़त्म करने तथा काश्मीरी और अन्य सभी राष्ट्रीयताओं के, अलगाव तक, आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्यता जैसी मांगें शामिल होंगी. इस जुझारू कार्यक्रम को, दक्षिण एशिया के सभी देशों में समाजवादी सत्ता-पलट और समाजवादी गणराज्यों के एक संघ में उन्हें एकजुट करने के लिए, दक्षिण एशिया में सर्वहारा वर्ग के युद्धनाद से सज्जित करना चाहिए.

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